अहल-ए-दिल -
खुद को ना यूँ समझ खुदा तू
खेल ना अब अंगारों से
हुआ कहीं जो पलभर ग़ाफ़िल ख़ाक बने चिंगारो से।।
कपट भरी फ़नकारी तेरी उलझ ना यूँ फ़नकारों से
गज़ब हौसला अटल इरादें मिलते बस खुद्दारों में।।
सुबह का सूरज छुपा हुआ है शब के इन अँधियारों में
बन नहीं सकता क़ाफ़िर तू जो साथ मिला ग़द्दारों के।।
बाज़ार जग है तू भी खड़ा है ज़ख्मों के खरीदारों में
"धरम" कहाँ बिकता है लेकिन मौला के दरबारों में।।
नज़र नज़र का धोखा ये जग खोकर देख नज़ारों में
तुझसे बढ़कर फ़क़ीर न होगा क़र्या क़र्या हज़ारों में।।
ज़ख़्म-ए-जिगर बना है मिरा क़िस्मत की लकीरों से
ख़ाक-बसर मैं दो पल जी लूँ अमीरों की तकदीरों से।।
ना तुन्द-हवा तुफ़ाओं से और हक़ूमत की शमशीरों से
अहल-ए-दिल कहाँ झुके हैं यारो बंदूकें और जंजीरों से।।
@कमल नूहिवाल "धरमवीर"
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