मेरे ख़्वाबों को हर सजाए जो ज़ीनत का कभी दीदार न मिला
शहर उजड़े थे पर ख्वाईशें अपनी दफ्नाऊं ऐसा मज़ार न मिला
उनके वाबस्ता गुल-ऐ-सौगात हो ऐसा कोई गुलज़ार न मिला
मेरी उल्फ़त का जो उनसे ज़िक्र करे ऐसा कोई तरफ़दार न मिला
हम तरसते ही रहे और उनकी नज़रों का इक इकरार न मिला
दिल की हसरतें ईबादत में बयां हो ऐसा कोई दरबार न मिला
इश्क़ चाहत है ग़र इज़हार-ऐ-इश्क़ का कोई क़िरदार न मिला
मिरी धड़कन को समझे जो ऐसा भी कोई दिलदार न मिला
हुस्न के बाज़ार में दिल के ज़ख्मो का कोई ख़रीदार न मिला
इतना तो वाज़िब है की मुझसा भी कोई तलबग़ार न मिला।।
-कमल नूहिवाल " धरमवीर "
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